छत्तीसगढ़ में आड़ू की खेती का सफल उत्पादन
डा.
पी. सी. चौरसिया
सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी)
इंदिरा गाँधी कृषि
विश्वविद्यालय
कृषि महाविद्यालय
एवं अनुसंधान केन्द्र, महासमुंद (छ.ग.)
आड़ू या सतालू की भारत के पर्वतीय तथा
उपपर्वतीय भागों में इसकी सफल खेती होती है। ताजे फल खाए जाते हैं तथा फल से फलपाक
(जैम), जेली और चटनी बनती है। फल में चीनी की
मात्रा पर्याप्त होती है। जहाँ जलवायु न अधिक ठंडी, न अधिक गरम हो, 15
डिग्री फा. से 100 डिग्री फा. तक के ताप वाले पर्यावरण
में, इसकी खेती सफल हो सकती है। इसके लिए
सबसे उत्तम मिट्टी बलुई दोमट है, पर
यह गहरी तथा उत्तम जलोत्सरण वाली होनी चाहिए। भारत के पर्वतीय तथा उपपर्वतीय भागों
में इसकी सफल खेती होती है। छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में इंदिरा गांधी कृषि
विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आलू एवं समशितोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र मैनपाट में आड़ू
की विभिन्न प्रजातियों का परीक्षण गया है जिनका परिणाम काफी उत्साहजनक रहा। आड़ू की
प्रजातियां जैसे शान-ए-पंजाब, फ्लोरिडा
प्रिंस, प्रताप,नेक्ट्रिन, अर्ली ग्रैंड का परिणाम बहुत अच्छा है। पौध रोपण के दो से तीन वर्ष बाद ही इन
प्रजातियों में अच्छा फलत पाया गया वर्ष 2017-18 एवं 2018-19 के परिणाम के आधार पर इन प्रजातियों
को उत्पादन हेतु बढ़ावा दिया जा सकता है।
जलवायु
आड़ू के खेती के लिए शीतोष्ण तथा समशीतोष्ण
जलवायु उपयुक्त होती लेकिन वे क्षेत्र जहां पर सर्दी में देर से पाला पड़ता है उसके
लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। निचले और मध्य क्षेत्रों में समुद्र तल से 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले क्षेत्र इसके उत्पादन के लिएि उपयुक्त है। आड़ू के
फूलों की कलियां फटने के लिए 6.5
डिग्री सै. से नीचे का तापमान हानिकारक होता है। आड़ू की अपेक्षा अधिक शीत तापमान
की जरूरत होती है। समुद्र तल से 1000
मीटर से 1600 मीटर तक ऊँचे तथा निचले मध्यवर्ती
क्षेत्र का एक बहुत बड़ा भाग इन फलों को उगाने के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।
मिट्टी
आड़ू के पौधों के लिए गहरी उपजाऊ तथा जल
निकास की सुविधा वाली दोमट मिट्टी चाहिए। आड़ू को कई तरह की मिट्टी में उगाया जा
सकता है, फिर भी हल्की रेतीली और ब्लुई दोमट और
उपजाऊ मिट्टी इसके लिए अधिक उपयोगी है। ज्यादा पानी वाली, अधिक पोषक तत्व युक्त तथा चिकनी मिट्टी
आड़ू के पौधे के लिए नुकसानदायक है। इसमें वानस्पतिक बढ़ौतरी अधिक होती है और
सर्दियों में पौधों को शीतघात से क्षति पहुँचती है।
किस्में
आलू एवं समशीतोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र,
मेनपाट में विभिन्न आड़ू की किस्मों का परीक्षण किया गया एवं पाया गया कि यहाँ के
किसानों के लिए कुछ किस्में जो अच्छी पैदावार के लाभदायक है इनकी खेती की जा सकती
है।
शाने पंजाब:- फल मई के दूसरे सप्ताह में पकर तैयार, 5 से 5.5 सेमी. व्यास वाला मध्यम आकार का, लगभग
100 ग्राम वनज प्रति फल, गूदा पीला, गुठली गूदे से चिपकी हुई, उत्तम स्वाद तथा बढ़िया सुगन्ध, उपज 125 कि.ग्रा. प्रति पेड़।
फ्लोरिडा प्रिंस:- यह प्रजाति फ्लोरिडा (यू.एस.ए.) से
आयातित की गई है यह अपै्रल के अन्तिम सप्ताह में पककर तैयार होती है। औसत उत्पादन 100 किग्रा. प्रति वृक्ष होता है।
प्रताप:- इसके फल अपै्रल महीने में पककर तैयार
हो जाता है, इसे पकने में लगभग 76 दिन लगते हैं। औसत उत्पादन लगभग 70 किग्रा. प्रति वृक्ष होता है।
पंजाब रेड:- यह प्रजाति मई माह के मध्य पककर तैयार
हो जाती है। गुदा पीला और गुठली से आसानी से अलग हो जाता है। यह डिब्बा बंदी उत्तम
किस्म मानी गई है। यह सतालु की अद्भूत बिना रोयेंदार प्रजाति है।
नैक्ट्रिन :- यह आड़ू की एक किस्म है जो सेब के समान
दिखता है। यह सतालू की हेयरलेस किस्म है। अच्छी उपज एवं गुणवत्ता होने के कारण
इसका बाजार मुल्य अच्छा है एवं उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र के किसानों के लिए उपयुक्त
है।
स्नोक्वीन (नैक्ट्रीन):- फल छोटे से मध्यम आकार के, चिकनी सफेद सतह पर चमकीला लाल रंग, गूदा सफेद, अच्छी सुगन्ध वाला व गठली से चिपका हुआ, फल मध्य जून में पक कर तैयार, पौधा फैलावदार, ओजस्वी एवं अच्छी पैदावार देने वाला है ।
पौध प्रर्वधन:- इसका व्यावसायीक रूप से प्रर्वधन कलम
बंधन व कलिकायन (बडींग) के द्वारा किया जाता है। आड़ू के बीज को दिसम्बर, जनवरी में बुवाई कर मूलवृन्त तैयार कर
लिये जाते हैं। फिर इनसे भूमि की सतह से 15 से
20 सेमी. की ऊँचाई पर चिरा लगाकर नाव
शक्ल में 2 सेमी. की सांकुर कलिका (बडवुड) मातृ
वृक्ष लेकर चिरे में लगा दी जाती है तथा इसे 200 गेज
पालीथिन सीट से बांध दी जाती है। यह क्रिया अक्टूबर, सितम्बर में की जाती है जब कलिका में बढ़वार प्रारंभ हो जाये तो
नियमित रूप से साइड सर्कस की पिंचिंग करते रहना चाहिए जिससे सांकुर कलिका की बढ़वार
अच्छी तरह हो सके ऐसा करने से अगले वर्ष वांछित किस्म के बडेड पौध क्लेप्ट ग्राफ्टिंग
विधि द्वारा फरवरी, मार्च में आड़ू के बीजू पौधे पर तैयार
किये जाते हैं। इस विधि में आड़ू के बीज की बुवाई दिसम्बर, जनवरी में कर मूलवृंत तैयार किये जाते
हैं फिर अगले वर्ष फरवरी,
मार्च में बडवुड को मूलवृंत पर
टंग ग्राफ्टिंग विधि से बांधा जाता है। बादाम और खुमानी पर अच्छे किस्म बनाये जाते
हैं।
पौध रोपण हेतु गड्ढे:- रोपाई या बुवाई से 15 से 20 दिन पहले 1x1x1 मीटर के गड्ढे खोद कर धूप में छोड़
दें। इसके बाद इन गड्ढों को 15 से
25 किलोग्राम गली सड़ी गोबर की खाद 125 ग्राम नाइट्रोजन, 50 ग्राम फास्फोरस, 100 पोटाश और 25 मिलीलीटर क्लोरोपायरीफास के मिश्रण के
साथ इन गड्ढों को भरने के बाद ऊपर से सिंचाई कर दें, ताकि मिट्टी दबकर ठोस हो जाए। अब पौधे गड्ढों के बीच में लगाएं।
खाद और उर्वरक:- आड़ू की खेती या बागवानी में जब वृक्ष 1 से 2 वर्ष का होता है, तो
अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 10 से
15 किलोग्राम, यूरिया 150 से 200 ग्राम, एसएसपी 200 से 300 ग्राम, और म्यूरेट ऑफ पोटाश 150 से 300 ग्राम प्रति वृक्ष डालें। जब वृक्ष 3 से 4 वर्ष का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 20 से 25 किलोग्राम,
यूरिया 500 से 700 ग्राम, एसएसपी 500 से 700 ग्राम, और म्यूरेट ऑफ पोटाश 400 से 600 ग्राम 25 से 35 किलोग्राम,
यूरिया 1000 ग्राम, एसएसपी 1000 ग्राम और म्यूरेट ऑफ पोटाश 800
ग्राम प्रति वृक्ष डालें।
सिंचाई प्रबंधन:- आड़ू के पौधे पर नये पत्ते निकलने और
फलने से पहले भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये। अतः अंकुरण के 7 से 10 दिन पूर्व बाग में अच्छी तरह सिंचाई कर देनी चाहिए। भूमि में सिंचाई
के समय न पानी अधिक लगना चाहिये और न कम अर्थात सिंचाई प्रक्रिया में विशेष
सावधानी रखनी चाहिए। जब बाग में फल वृद्धि पर हों, तो आवश्यकतानुसार जल्दी-जल्दी सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये, इससे फल कुछ दिन पूर्व पक जाते हैं।
खरपतवार नियंत्रण एवं अंतरफसल:
खरपतवार: - आड़ू के बाग को निराई गुड़ाई कर के
खरपतवार मुक्त रखें, यदि खरपतवार अत्यधिक मात्रा में है, तो खरपतवारनाशी का भी प्रयोग कर सकते
हैं।
अंतर फसलें- छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी
क्षेत्र मेनपाट आड़ू के बीच में हल्दी, अदरक, बरबटी, रबी मौसम आलू, प्याज,मटर को
बहुत आसानी से खेती की जा सकती है क्योंकि आडू के फसल की पत्तियों सितम्बर से मार्च
तक सुसुप्तावस्था में रहता है l जब तक आड़ू के बाग में फलत नहीं होती है, किसान भाई दलहनी, तिलहनी और सब्जियों की फसले उगा सकते
हैं।
कीट रोकथाम:
चेंपा:- आड़ू की खेती में यह कीट आमतौर पर
मार्च से मई के महीने में सक्रिय होता है। इस कीट के कारण पत्ते मुड़ जाते हैं और
पीले होकर गिर जाते हैं।
रोकथाम:- रोगोर 30 ईसी 800 मिलीलीटर को 400 ये 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें । यदि जरूरत हो तो 15 दिनों के बाद दोबारा छिड़काव करें।
छेदक कीट:- यह एक खतरनाक कीट है, जो कि मध्य मार्च में सक्रिय होता है।
ये हरे पत्तों को खाता है।
रोकथाम:- डरमेट 20 ईसी 1 लीटर को 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर फल तुड़ाई के बाद जून के महीने में छिड़काव
करें।
बीमारी:
बैक्टीरियल और गोंदिया:- यह रोग मुख्य तने, टहनी, शाखाओं, कलियों पत्तों और यहां तक कि फलों को
भी नुकसान है।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए आड़ू की उत्तम
किस्म हो। फूल खिलने से पहले वृक्षों पर कापर का छिड़काव करें संक्रमण को कम करने
के लिए अगेती गर्मियों में सिधाई करें।
जड़ सड़न:- यह रोग मुख्यतः जल निकास की कमी से
होता है।
रोकथाम
रोग जनित भाग को छिलकर अलग कर ले और
चैबटिया पेस्ट लगायें। पतझड़ और बसंत ऋतु में एक छिड़काव बोडो मिश्रण का करें।
फल तुड़ाई और पैदावार
फल तुड़ाई:- अप्रैल से मई का महीना आड़ू के फसल के
लिए मुख्य फल तुड़ाई का समय होता है इनका बढिया रंग और नरम गुदा पकने का लक्षण है।
आड़ू के परिपक्व फलों को ही तोड़ना चाहिए अपरिपक्व फल स्वाद रहीत होते हैं और क्रेताओं
द्वारा पंसंद नहीं किये जाते हैं।
उपज:- आड़ू के खेती के अनुसार सामान्य
परिस्थितियों में 90 से 150 क्विंटल तक आड़ू की उपज मिल जाता है।
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