छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र मैनपाट में अंगूर खेती की संभावनाएं


छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र मैनपाट में अंगूर खेती की संभावनाएं 
  डॉ. पी. सी. चौरसिया
सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी)
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र,महासमुंद (छ.ग.)
 इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय

 अंगूर की गिनती भारत के सर्वश्रेष्ठ फलों में की जाती है। यह बहुत ही स्वादिष्ट एवं आनन्ददायक फल होता है, जिसकी प्रशंसा विश्वभर में की जाती है। अंगूर की खेती शराब बनाने, ताजा खाने एवं सुखाकर किशमिश बनाने के उद्देष्यों के लिए की जाती है। अंगूर कुल क्षेत्रफल के 82 प्रतिशत भाग में शराब बनाने के लिये, शेष 18 भाग में 9 प्रतिशत भाग तथा 9 प्रतिशत भाग में किशमिश बनाने के लिए पैदा किया जाता है। अंगूर के फल का प्रयोग ताजे रूप में खाने के अतिरिक्त किशमिश, परिक्षित रस, शराब, जैली तथा सिरका के रूप में भी किया जाता है। हमारे यहाँ किशमिश की अधिक मांग रहती है। यह बीजरहित अंगूर को सूखाकर तैयार की जाती है। किशमिश तथा मुनक्के का प्रयोग खीर, हलुवा, चटनी, मिठाई, केक आदि में किया जाता है। अंगूर में चीनी की मात्रा 26 प्रतिशत तक पाई जाती है, साथ ही साथ लोहा आदि खनिज पदार्थ अच्छी मात्रा में पाये जाते हैं। छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र के अन्र्तगत् 10 प्रतिशत् से अधिक रकबा पहाड़ी क्षेत्र के अन्र्तगत् आता है। यहाँ प्रमुख रूप से पहाड़ी अंचल के अन्र्तगत् सरगुजा जिले में मैनपाट, बलरामपुर में कुसमी, सामरीपाट एवं जशपुर जिले के जोकापाट, सन्नापाट क्षेत्र जो कि समुद्र की सतह से 1000 से 1500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है यहाँ की जलवायु वर्षाती आलू, टाऊ एवं समशीतोष्ण फल, सब्जी एवं फूलों के उत्पादन के लिए विशेष उपयुक्त है। 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के विशेष प्रयास से मैनपाट में आलू एवं समशीतोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की गई। इस केन्द्र की स्थापना का मुख्य उद्देष्य छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र के अंतर्गत ठण्डी समशीतोष्ण जलवायु वाले पहाड़ी क्षेत्र (15000 हे.) में आलू के अतिरिक्त शीतोष्ण फल प्रजातियों जैसे- नाशपाती, आलू बुखारा, आडू, किवी, अंजीर, नैक्ट्रिन, परसीमन एवं सेब आदि में अनुसंधान द्वारा इनकी उपयुक्त किस्में, उत्पादन तकनीकि एवं अनुसंधान द्वारा अनुसंशित उपयुक्त समशीतोष्ण फल प्रजातियों का बड़ी मात्रा में उन्नत पौधे तैयार कर कृषकों के खेतों पर सफल रोपण कर फलोत्पादन द्वारा कृषकों की आय में वृद्ध् िकरना है। छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आलू एवं समशितोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र मैनपाट में अंगूर की विभिन्न प्रजातियों को 2015-16 में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना से लाया गया है जिनका परीक्षण परिणाम काफी उत्साहजनक रहा। अंगूर की प्रजातियां जैसे परलेट, फ्लेम सिडलेस, एवं पंजाब परपल का परिणाम बहुत अच्छा है। पौध रोपण के दो वर्ष बाद ही इन प्रजातियों में अच्छी फलत पाया गया वर्ष 2017-18 एवं 2018-19 के परिणाम के आधार पर इन प्रजातियों को उत्पादन हेतु बढ़ावा दिया जा सकता है।  आलू एवं शीतोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र, मैनपाट समुद्र तल से 1075 मीटर ऊँचाई पर स्थित है।

जलवायु-अंगूर उपोष्ण जलवायु का फल है जो गर्म, सुखा गर्म, सुखा गर्मी का मौसम एवं ठण्डा तथा वर्षायुक्त सर्दी का मौसम चाहता है। इस फसल की कुछ तकनिकियों में आमुलाग्र परिवर्तन करके इसी फसल को शीतोष्ण वातावरण में सफलता पूर्वक लगाया जा रहा है। परन्तु वातावरण में ज्यादा नमीं इस फसल के लिए हानिकारक होती है। ऐसी जलवायु में अधिक सर्दी में यह पत्तियाँ गिराकर सुषुप्तावस्था में रहता है तथा बसन्त ऋतु आगमन पर इसमें नई वृद्धि एवं फलन होती है। इसका फल गर्मियों में पकता है जब वर्षा नहीं होती है। सामान्य रूप से अंगूर ऐसे क्षेत्र में नहीं पनपता है जहाँ गर्मियों में वर्षा होती है। फल के समय नमी रहने से फल मीठे नहीं होते है तथा बहुत सी फफूँद वाली बीमारियाँ पत्तियों एवं फलों पर लग जाती हैं।
मिट्टी-अंगूर विभिन्न प्रकार की मिट्टीयों में पैदा किया जाता है। साधारण मिट्टी जिसमें फसलों को उगाया जा सकता है, अंगूर के लिये भी उपयुक्त होती है। मिट्टी  अच्छे जल निकास वाली होनी चाहिये। कमजोर एवं बलुई मिट्टी में यदि खाद तथा सिंचाई पर्याप्त मात्रा में दी जाती है तो वह उतनी ही उपयुक्त होती है, जितनी कि दोमट मिट्टी। 
किस्में-
(अ) खाने वाली किस्में - आलू एवं समशीतोष्ण फल अनुसंधान केंद्रए मेनपाट में अंगूर की विभिन्न प्रजातियों जैसे परलेटएफ्लेम सीडलेस एवं पंजाब परपल का मूल्यांकन किया गया है जिसका परिणाम काफी अच्छा है ।



स्थल का चयन- अंगूर मुख्यतः उपोष्ण क्षेत्रों में उगाया जाता है, लेकिन इस फसल की कुछ तकनिकियों में आमुलाग्र परिवर्तन करके इसी फसल को शीतोष्ण वातावरण में सफलता पूर्वक लगाया जा रहा है। परन्तु वातावरण में ज्यादा नमीं इस फसल के लिए हानिकारक होती है। 
जमीन की तैयारी और रूपरेखा तैयार करना- साधारणतः कतार उत्तर दक्षिण के दिशा में  Y तथा T ट्रेलिज में चयन किया जाता है जिसमें कार्डन की भी दिशा एक होती है, लेकिन पंडाल (मंडप) पद्धति में पूरब-पश्चिम दिशा का चुनाव किया जाता है। बगीचे में कार्य की आसानी के लिए कतार की लंबाई 200 फुट से ज्यादा न हो। पौधों को लगाने के लिए कम से कम दो फुट गहरा गड्ढा खोदना चाहिए, जिससे जड़ों का विकास ठीक तरह से होता है। साथ ही जमीन पथरीली मुरूम हो तो 4 फुट तक रिपींग करना अनिवार्य होता है। गड्ढा खोदने के बाद उसमें खाद (सुपर फास्फेट) और गोबर डालकर मिट्टी से भर दिया जाता है।
ट्रेलिसेस लगाना-अंगूर की लता को चढ़ाने के लिए किस ट्रेलिस पद्धति चयन यह अंगूर की किस्म, उस स्थान का वातावरण, मशीनों का प्रयोग, आदि पर निर्भर करता है ल् अथवा ज् पद्धति नमीयुक्त वातावरण में तथा मण्डप पद्धति सूखे वातावरण के लिए उपयुक्त रहता है। मंडप पद्धति सूखे वातावरण के लिए उपयुक्त रहता है। मंडप पद्धति में अधिक आर्द्रता संचित होने के कारण रोगों का प्रभाव ज्यादा होता है। इसके अलावा कार्य करने में भी बहुत सी कठिनाईयाँ आती है। 
सिंचाई पद्धति स्थापित करना- सिंचाई करते समय पानी के एक समान बँटवारा (खड़ा और आडा) होने की सुविधा सिंचाई पद्धति में होना जरूरी है। कम दबाव के इमीटर्स के द्वारा ज्यादा समय तक पानी छोड़ना जमीन के लिए लाभदायक होता है। एक समान पानी वितरण के लिए ड्रिप लाइन को जगह - जगह पर बांध देना चाहिए। पानी के संचय के साथ व्हेंच्यूरी और सॅन्ड फिल्टर जोड़ने की सुविधा होना जरूरी है। जिससे समय-समय पर खाद सिंचाई द्वारा दिया जा सकता है। समय-समय पर ड्रिप लाइन से पानी बहाने से जमा हुई गंदगी हट जाती है और हर पौधे को एक समान दबाव से पानी मिलता है।


खाद एवं उर्वरक-अंगूर की लतायें लगभग 2.10 या 2.4 मीटर पर लगाई जाती है तथा उनको पंगारा पौधों पर ट्रेन किया जाता है को खाद की पर्याप्त मात्रा वर्ष में एक बार, अप्रैल की कृन्तन के बाद दी जाती है। इसमें 35 किग्रा. गोबर की खाद तथा 1.350 किग्रा अण्डी की खली दी जाती है जो कि मानसून में लकड़ी को कड़ा बनाती है तौर जब अक्टूबर से उसका कृन्तन किया जाता है तो उस पर भारी फलत पैदा होता है। अक्टूबर की कृन्तन के बाद कोई भी खाद नहीं दी जाती है। जब लताओं को व्यक्तिगत सहारा विधि से ट्रेन करने के लिए घना लगाया जाता है (2x5मी.) तो खाद प्रत्येक लता को अलग-अलग न देकर लगभग 100 गाड़ी गोबर की खाद, 20-25 क्विंटल अण्डी की खली, 10 क्विंटल सुपर फास्फेट प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देते है। खरपतवारों को समय-समय पर नष्ट करते रहते हैं नही तो इनके द्वारा खाद का अधिक ह्रास हो जाता है। 22.5 किग्रा गोबर की खाद प्रतिवर्ष मार्च के महीने में दी जाती है। साथ ही साथ अमोनियम सल्फेट को 1.125 किग्रा मात्रा दो बार में, मार्च-अप्रैल (फल बनने के समय) के महीने में दे दी जाती है।
रोपण विधि- पौधे लगाने के बीच का अन्तर मिट्टी, जलवायु, किस्मों, कृन्तन के तरीके तथा खेती करने के ढंग के ऊपर निर्भर करता है। बेल को केन प्रणाली से ट्रेन करते हैं उनको 3 मीटर के अन्तर पर लगाया जाता है। पौधे लगाने से पहले 45 45 45 सेमी आकार के गड्ढे खोदकर खाद तथा मिट्टी के बराबर मिश्रण से भर देते हैं तथा पौधे लगा देते हैं। उत्तरी भारत में एक वर्ष पुरानी तथा छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में बेलों को सर्दी के मौसम के अन्त में लगाया जाता है, जिससे वे बढ़कर ठीक हालत में हो जायें।
कृन्तन की विधियाँ- अंगूर की पैदावार अधिकांशतः उसकी कटाई-छँटाई की विधि के ऊपर निर्भर करती है। अंगूर की विभिन्न किस्मों को विभिन्न प्रकार के कृन्तन की आवश्यकता होती है जो कि उसकी शक्ति एवं फलत की आदत के ऊपर निर्भर करती है। अंगूर के पौधे सर्दी में सुषुप्तावस्था में रहते हैं तथा वर्ष में केवल एक बार बसन्त ऋतु में नई वृद्धि करते हैं, अर्थात् केवल एक बार ही फलत होती है। अंगूर के पौधे सितम्बर से मार्च तक सुषुप्तावस्था में रहते हैं तथा फरवरी के प्रारम्भ में इनमें कृन्तन किया जाता है। कृन्तन की क्रिया करने से पहले इससे सम्बन्धित निम्नलिखित बातों की जानकारी होना आवश्यक होता है जैसे –
 1. टहनी - वर्तमान मौसम में हुई वृद्धि।
2. शाखा - पिछले मौसम की परिपक्व वृद्धि
3. खूँटी - कृन्दन के पश्चात् शाखा का शेष भाग।
4. फल खूँटी - ऐसी खूँटी जिसमें वृद्धि के लिए 3-4 कलियाँ हों।
5. आधार खूँटी - एक कलिका वाली खूँटी जिसमें आगामी ऋतु में पैदा होने वाली फलों के लिए टहनियाँ पैदा होती है। यह अपै्रल की कृन्तन के बाद का शेष भाग होता है।
6. तना - लता का मुख्य भाग जिससे सभी शाखायें पैदा होती हैं

कृन्तन का समय- कृन्तन का समय अंगूर की किस्मों की वृद्धि तथा फलत के ऊपर निर्भर करता है। यह भारत में अंगूर की दो फसलें पैदा की जाती हैं जिसके लिए कृन्तन भी दो बार अपै्रल तथा अक्टूबर में किया जाता है। अपै्रल में केवल एक कलिका छोड़कर शाखाओं को काट देते हैं। जिसे आधार खूंटी कहते हैं। इससे हुई वृद्धि पर फलत होती है। तत्पश्चात् अक्टूबर में शाखाओं को 3-4 कलियाँ छोड़कर काट देते हैं, जिस पर वृद्धि की हुई टहनियों पर भारी फलत होती है, इसको फलत खूंटी कहा जाता है। छँटाई का सबसे अच्छा समय 20 मार्च से 20 अप्रैल तथा अक्टूबर में 20 अक्टूबर होता है। इनसे फलत क्रमशः सितम्बर - अक्टूबर तथा फरवरी - मार्च में मिलती है। ऐसे स्थान जहाँ पर सर्दी अधिक पड़ती है, जैसे - उत्तरी भारत एवं छत्तीसगढ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र मैनपाट में सर्दी की ऋतु में लतायें सुषुप्तावस्था में रहती है। जनवरी के अन्त या फरवरी में कृन्तन किया जाता है जिससे मई - जून में फलत मिलती है। कृन्तन करने के बाद कटिंग के ऊपर कापर आक्सीक्लोराइड फफुंदनाशी के साथ अलसी के तेल से पेस्ट लगाना चाहिए जिससे कीट एवं विमारियों का प्रकोप स्वस्थ टहनियों पर नहीं पड़ता ।
फूल व फलन- अंगूर की लताओं की देख-रेख ठीक प्रकार से होने पर दूसरे वर्ष फल प्राप्त होने लगते हैं लेकिन अधिकतम फलत तीसरे एवं चैथे वर्ष से मिलनी आरम्भ होती है। छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में फूल मध्य मार्च से अप्रैल तक आते हैं तथा पके हुये फल मई जून में मिलते हैं। देर में पकने वाली किस्में जुलाई तक फल देती हैं।
उपज- अंगूर की पैदावार किस्म विशेषए लता की उम्र, कृन्तन अन्य कर्षण क्रियाओं पर निर्भर करती हैं। अंगूर की किस्म फ्लेम सीडलेस की पैदावार 145 क्विंटल से 330 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है। अंगूर की किस्म पंजाब परपल की पैदावार 135 क्विंटल से 320 क्विंटल एवं परलेट की पैदावार 125 से 315 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।



 पौध संरक्षण:-कीट
अंगूर का भृंग- पत्तियों में छेद बनाकर नुकसान पहुँचाने वाला या छोटा काले रंग का कीड़ा होता है। यह कोमल प्ररोहों एवं कलियों को खाकर नष्ट करता है। इन कीडों को किसी प्रकार पकड़कर नष्ट कर देना चाहिए। 
 लीफ रोलर- ये कुछ पीलापन लिये हुये हरे रंग के पदातिक होते हैं, जो पत्तियों को बेल्लित करते हैं तथा उनको खाकर नुकसान पहुंचाते हैं। इनको हाथ द्वारा चयन करके नष्ट किया जा सकता है। इनकी संख्या अधिक होने पर सिस्टमिक दवा का छिड़काव कर नष्ट किया जा सकता है ।
 गर्डलिंग भृंग- यह लता की टहनियों पर गर्डिल सा बना लेता है। प्रभावित टहनियाँ सूखकर नष्ट हो जाती है। इन टहनियों को काटकर तथा इकट्ठा कर जला देते हैं जिससे इनके अन्दर उपस्थित ग्रब्स को नष्ट किया जा सके।
विमारी एवं रोकथाम
पाउडरी मिल्ड्यू- ये रोग लगभग सभी स्थानों पर पाया जाता है जो कि उपर्युक्त कवक द्वारा होता है। इसके प्रभाव से प्ररोह, पत्तियां तथा फलों पर सफेद चित्तियाँ पड़ जाती है। प्रभावित फूलों पर फल पैदा नहीं होते हैं तथा रोगग्रसित फलों की वृद्धि रूक जाती है तथा उनमें फटकर सड़न पैदा हो जाती है या फिर प्रभावित फल कड़े एवं खट्टे हो जाते हैं। रोग ग्रसित भागों को काटकर गन्धक का चूर्ण छिड़कना चाहिये। यह क्रिया दो-तीन बार की जाती है। बोर्डों मिश्रण के छिड़काव से भी इसको काफी हद तक रोका जा सकता है। इस बीमारी में कापर आक्सीक्लोराइड फफुंदनाशी का प्रयोग काफी अच्छा देखा गया है।
 कालव्रण- इस रोग के प्रभाव से पौधे के तने, पत्तियों एवं फलों पर भूरे काले धब्बे हो जाते हैं जो कि बाद में काफी बड़े दृष्टिगोचर होने लगते हैं। गहन आक्रमण के कारण पौधों पर फल पैदा नहीं होते हैं। फूल तथा फलत के लिये दो-तीन छिड़काव चूना-गन्धक, बोर्डों मिश्रण के करने से इसका प्रभाव समाप्त किया जा सकता है। रोगग्रसित शाखाओं को काटकर जला देना चाहिए। नियन्त्रण हेतु प्रति 3 सप्ताह बाद वर्षा ऋतु में 0.3 प्रतिशत फाइटोलान का छिड़काव करें।
 डाउनी मिल्डॅयू- यह बीमारी च्संेउवचंतं अपजपबवसं नामक कवक द्वारा पैदा होती है। पत्तियों के अतिरिक्त नई शाखाओं फूल तथा छोटे फलों पर भी इस रोग का आक्रमण होता है। बीमारी से प्रभावित पत्तियाँ सूख जाती है तथा फलों की वृद्धि रूक जाती है तथा गहन प्रभाव पर वे नीचे गिर जाते हैं। 2 प्रतिषत बोर्डों मिश्रण का छिड़काव दो-तीन बार करने से इसके प्रभाव को समाप्त किया जा सकता है। प्रभावित भागों को काटकर जला देना उचित होता है तथा 0-3 प्रतिशत ताम्रयुक्त कवकनाशक या केप्टान 0.5 प्रतिशत या डाइथेन एम. 45 का 0.2 - 0.25 प्रतिशत घोल का छिड़कना चाहिये।
नोट- यह लेख आलू एवं समशीतोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र ,मेनपाट में हुए अनुसंधान के आधार पर प्रसारित किया जा रहा है कृपया इसे कॉपी कर अन्य पत्रिका में प्रसारित न करें l

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