छत्तीसगढ़ में आलूबुखारा खेती की ब्यापक संभावनाएँ
डॉ. पी. सी. चौरसिया
सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी)
इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, महासमुंद (छ.ग.)
प्रस्तावना-
आलू बुखारा को
अंग्रेजी में प्लम के नाम से जाना जाता है l यह बहुत ही स्वादिष्ट फल है l इसे
ताजा या फिर सुखाकर भी खाया जा सकता है l आलू बुखारा के कई स्वास्थ्य लाभ होते हैं
l इसके सेवन से हाई ब्लड प्रेशर स्ट्रोक रिस्क आदि कम हो जाते हैं और शरीर में
आयरन की मात्रा बढ़ती है l इसके सेवन से शरीर मजबूत और ताकतवर बनता है l इसके अलावा
इस फल में अनेक विटामिन, खनिज लवण एवं अन्य पोषक तत्व पाए जाते हैं l
आलूबुखारा या
प्लम की खेती कश्मीर, हिमाचल प्रदेश
तथा उत्तराखण्ड में प्रमुख रूप से की जाती है l कुछ किस्में उप-पर्वतीय तथा उत्तरी पश्चिमी मैदानी भागों में भी पैदा की
जाती है l ये सहिष्णु किस्में हैं और ये किस्में इस जलवायु में आसानी से पैदा होती
है l आलूबुखारा को प्लम और अलूचा नाम से भी जाना जाता है l छत्तीसगढ़ का उत्तरी
पहाड़ी क्षेत्र मैनपाट समुद्र तल से 1075 मीटर की ऊँचाई
पर स्थित है यहां पर ठण्ड में न्यूनतम तापमान शुन्य डिग्री से. तक रहता है। मेनपाट
क्षेत्र में आलूबुखारा की विभिन्न प्रजातियों का रोपण किया गया है एवं उत्पादन
लिया जा रहा है। इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आलू एवं समशीतोष्ण
फल अनुसंधान केन्द्र मैनपाट में आलूबुखारा की प्रजातियों का परीक्षण एवं मूल्यांकन
किया गया है। जिसका परिणाम उत्साहजनक है। केन्द्र में आलूबुखारा की दो प्रजातियों
का परीक्षण किया गया है इनमें सतलुज परपल एवं
काला अमृतसरी दोनों प्रजातियों का परिणाम बहुत अच्छा है।
जलवायु-
आलूबुखारा या
प्लम की खेती पर्वतीय आंचल और मैदानी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है l इसका
पेड़ लगाने के दो वर्ष बाद ही फूलना-फलना आरम्भ कर देता है और अधिक परिपक्वता के
साथ साथ इसके पौधे से काफी अधिक उपज मिलती है l
आलूबुखारा या प्लम की
खेती के लिए शीतल और गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है l यूरोपीय आलूबुखारा को 7० सेल्सीयस से कम
ताममान लगभग 800 से 1500 घण्टों तक चाहिए
जब कि जापानी आलूबुखारा को उक्त तापमान 100 से 800 घण्टो तक चाहिए l यही कारण है कि इसका उत्पादन कम ऊँचाई
वाले स्थानों में और मैदानी क्षेत्रों में भी किया जाता है l परन्तु इसकी
उत्तम खेती समुद्रतल से 900 और 2500 मीटर वाले
क्षेत्रों में होती है l ऐसे स्थान जहाँ बसन्त ऋतु में पाला पड़ता हो इसकी खेती के
लिये अनुपयुक्त होते है l
भूमि
का चयन-
आलूबुखारा या
प्लम की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती हैए लेकिन उपजाऊ अच्छे जल-निकास
वाली गहरी 1.5 से 2 मीटर गहरी भूमि
खेती के लिये उपयुक्त होती है, अधिक एल्यूमिनियम तत्व वाली और अधिक अम्लता वाली
मिट्टी आलूबुखारा के लिए उपयुक्त नहीं है l अधिक अम्लीय मृदा की अवस्था में सुखा
चुना पावडर का प्रयोग काफी लाभदायक होता है l
उन्नतशील
किस्में-
आलूबुखारा या प्लम की
खेती के लिए निम्न किस्में उगाई जाती है जैसे-
समुद्र तल से 1000 मीटर तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के लिये- काला
अमृतसरी, सतलुज परपल, सैंटारोजा, फंटीयर, रैड ब्यूट, अलूचा परपल, जामुनी, लेट यलो
और प्लम लद्दाख प्रमुख है l
काला
अमृतसरी- यह पंजाब प्रान्त की सबसे मशहूर आलू बुखारा की प्रजाति
है l पकने के पश्चात इसका आकार मध्यम,गोल
एवं गहरा भूरा होता है l फल के गूदे का रंग पीला ,जूसी एवं जैम बनाने के लिए उत्तम
होता है l इसका फल मध्य मई में पककर तैयार हो जाता है l एक पौधे की औसत उपज 40-45
किलोग्राम होती है l
सतलुज
परपल- आलू बुखारा के इस प्रजाति का आकर बड़ा ,चमकीला गहरा लाल,अधिक
गूदा एवं अच्छी भण्डारण क्षमता होती है l इस फल के पकने का समय मई माह का दूसरा
सप्ताह है l इस प्रजाति से प्रति पौधा 25-30 किलोग्राम फलत प्राप्त होती है l इस
प्रजाति में स्वअनिषेच्यता होने के कारण इसका रोपण काला अमृतसरी के साथ करने से उपज
में सुधार होता है l
फंटीयर- फल सैंटारोजा से
भारी और आकार में बड़ा, छिलका गहरा लाल बैंगनी, गूदा गहरे लाल रंग का मीठा,
स्वादिष्ट, सख्त, एक समान मीठा, सुगन्धित, गुठली से अलग होने वाला, फल भण्डारण की
अधिक क्षमता तथा जून के अन्तिम सप्ताह तक पककर तैयार, पैदावार अधिक, पौधा ओजस्वी,
सीधा ऊपर की ओर बढ़ने वाला, अधिक फलन के लिए परपरागण आवश्यक, इसके लिए सैन्टारोजा
अच्छी परागण किस्म है l
रैड
ब्यूटी- फल मध्यम आकार के, ग्लोब की तरह व लाल एवं चमकीली त्वचा
वाले, गूदा पीला, पिघलने वाला, मीठा और सुगंधित व गुठली से चिपके रहने की प्रवृति
वाला, सैंटारोजा से दो सप्ताह पहले मई के अन्तिम सप्ताह में पक कर तैयार, पौधे
ओजस्वी, मध्यम आकार के और नियमित फल धारण करने वाले होते है l
ध्यान
देने योग्य- कुछ आलूबुखारा की किस्में स्वयं परागण करने में समर्थ नही
है, इसलिए बीच बीच में परागण किस्में लगाएं जो उत्तम पैदावार के लिए अति आवश्यक है
l सतलुज परपल मादा के बीच में काला अमृतसर नर पौधों को 8:1 के अनुपात से लगाने से
उत्तम फलत प्राप्त होती है l
परागण-
आलूबुखारा की
यूरोपीय वर्ग की किस्मों, जैसे- ग्रीन गेज, इटैलियन प्रून तथा शुगर प्रून में फल
स्वपरागण से बनते है l इसलिए इन किस्मों की फलत के लिए किसी परागकारी किस्म की
आवश्यकता नहीं होती है l परन्तु कुछ किस्में जैसे- एगेन अपने पराग से फल नहीं बनाती, इन्हें परागण
तथा फलत के लिए अन्य किस्मों के पराग की आवश्यकता होती है l इसलिए परागकर्ता के रूप में सेन्टारोजा और रेड
हार्ट किस्मों को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि यह एक
बहुत अच्छी व्यावसायिक किस्म है l
जापानी वर्ग की
अधिकाशं आलूबुखारा किस्मों में स्व-अनिशेच्यता पायी
जाती है l इसलिए इन्हे परागण के लिए अन्य किस्मों जैसे- सेन्टारोजा या मेरीपोजा की
आवश्यकता पड़ती है l ब्यूटी और मिथले जो कि जापानी वर्ग की किस्में है, में स्वय-परागण से फल लग जाते हैं l यदि इन किस्मों के साथ अन्य
परागकर्ता किस्में भी लगा दी जायें तब फलत और भी अच्छी होगी l इसके अलावा सतलुज परपल मादा के बीच में काला
अमृतसर नर पौधों को लगाने से उत्तम फलत प्राप्त होती है
इसलिए आलूबुखारा
का बाग लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए, कि बगीचे में एक से ज्यादा किस्म के
पेड़ परागकर्ता के होने चाहिए l आलूबुखारा की सतसुमा किस्म से अच्छी फलत प्राप्त करने के
लिए सेन्टारोजा किस्म को बगीचे में लगाना चाहिए l अच्छे परागण के
लिए बाग में मधुमक्खियों के बक्से भी रखने चाहिए l
प्रवर्धन
और मूलवृन्त-
आलूबुखारा का
प्रसारण आडू, कैंथा और खूबानी के बीजू स्कन्ध पर रिंग तथा टी-कलिकायन विधि द्वारा जून से जुलाई माह में किया जाता है l पैच बडिंग विधि द्वारा भी इसका प्रसारण किया
जा सकता है l मिट्टी के अनुसार प्रसारण इस प्रकार कर सकते है, जैसे- बलुई व भारी भूमि जहां निमेटोड की समस्या हो वहां
माईरोबेलान आलूबुखारा के बीजू पेड़, हल्की भूमि
जिसमें अच्छा जल निकास हो के लिए आडू के बीजू पेड़ और निमेटोड वाली बलुई भूमि के
लिए खुबानी एवं कैंथा के बीजू पेड़ मूलवृन्त के रुप में प्रयोग करना चाहिए l
पौध
रोपण
आलूबुखारा या
प्लम की खेती के लिए नवम्बर और जनवरी माह के बीच निर्धारित स्थान पर 90x90x90 सेन्टीमीटर
आकार के 6 x 6 मीटर की दूरी पर
गड्डे खोद लेना चाहिए l सघन बागवानी के
रूप में गड्ढों का आकार 4 x 3 मीटर किया आ सकता है l इसके बाद
प्रत्येक गड्डे में 25-30 किलोग्राम गोबर की खाद मिट्टी में मिला कर गड्डों में भर
देना चाहिये l दीमक एवं अन्य कीट से रक्षा हेतु गड्ढों में क्लोरोपायरीफास कीटनाशक
दवा को गड्ढे भराई के समय खेत में डालना चाहिए l जनवरी से फरवरी में नर्सरी से
स्वस्थ व रोगमुक्त पौधों को लेकर इन गड्डों में लगाकर अच्छी तरह से मिट्टी को दबा
देनी चाहिए और हल्की सिंचाई करनी चाहिए l आलू बुखारा के पौध का रोपण सुसुप्तावस्था
में ही करना चाहिए l
जल एवं
सिंचाई
आलूबुखारा की
खेती में पौध रोपण के पश्चात् तुरंत सिंचाई की आवश्यकता होती है अतः सिचाई व्यवस्था
भरपूर रूप से होनी चाहिए इसके लिए थाला विधि एवं टपक सिंचाई होना अति उत्तम है l फलत
तथा फल विकास के समय इसमें पानी की कमी नहीं बिल्कुल नहीं होनी चाहिए l मैदानी
भागों में ग्रीष्म ऋतु में कम से कम 2 से 3 दिन में सिंचाई करना आवश्यक होता है l मेनपाट जैसे पर्वतीय
क्षेत्रों में टपक सिंचाई के माध्यम से जलपूर्ती करना चाहिए इसके अलावा पौधों के बीच
में अंतरसस्यन के रूप में जो फसल ली जायेगी उस फसल के लिए टपक सिंचाई काफी उपयोगी
सिद्ध होगी l
सधाई
और कटाई-छटाई
आलूबुखारा के
पौधे की अच्छा आकार देने के लिए सधाई हेतु उसको काटना-छाँटना अति आवश्यक है l आलूबुखारा की बहुत
सी किस्में ऊपर वृद्धि करने के बजाय अगल-बगल में फैलकर वृद्धि करती है l ऐसी
किस्मों की सधाई खुला मय विधि से करनी चाहिए l जो किस्में ऊपर की तरफ वृद्धि करती
है, उन्हे रूपान्तरित अग्रप्ररोह विधि-मॉडीफाइड लीडर विधि द्वारा सधाई करनी चाहिए
l इस विधि में मूल तने को 3 से 4 मीटर तक सीधा
बढ़ने देने के बाद इसको ऊपर से काट दिया जाता है, इस 3 से 4 मीटर ऊँचे तने
पर ही समुचित दूरी पर शाखायें रखी जाती हैं l आलूबुखारा में
स्पर व एक साल पुरानी शाखाओं पर फल लगते हैं l स्पर आठ साल तक लगातार फल देते रहते
है l अतः आठ साल से अधिक उम्र के स्पर को काट कर निकाल देना चाहिए l एक साल पुरानी
शाखाओं को लगभग एक-तिहाई काट कर अलग कर लें, जिससे अगले वर्ष के लिए नई शाखायें
प्राप्त हो सकती हैं l पौध छंटाई एवं कटाई के बाद कटे हुए स्थान पर अलसी का तेल में
कापर आक्सिक्लोरिड को मिलकर पेस्ट लगाना
काफी उचित होता हैl
डोमिस्टिका वर्ग- यूरोपीय वर्ग के
अधिकांश किस्मों में फल स्पर पर आते हैं l फलत वाली इन किस्मों में काट-छाँट नही
के बराबर करनी चाहिए, कमजोर, रोग ग्रसित तथा अन्दर की ओर बढने वाली टहनियों को
काटते रहना चाहिए l जिससे पेड़ में रोशनी का समुचित समावेश हो और इसके स्पर फलत की
अवस्था में अधिक दिनों तक रहें l
खाद और
उर्वरक
आलूबुखारा या
प्लम की खेती में जब वृक्ष 1 से 2 वर्ष का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 10 से 15 किलोग्राम,
यूरिया 150 से 200 ग्राम, सिंगल
सुपर फास्फेट 200 से 300 ग्राम और
म्यूरेट ऑफ पोटाश 150 से 300 ग्राम प्रति
वृक्ष डालना चाहिए l जब वृक्ष 3 से 4 वर्ष का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 20 से 25 किलोग्राम,
यूरिया 500 से 700 ग्राम, सिंगल
सुपर फास्फेट 500 से 700 ग्राम, और
म्यूरेट ऑफ पोटाश 400 से 600 ग्राम प्रति
वृक्ष डालना चाहिए l जब वृक्ष 5 वर्ष या इससे
ज्यादा उम्र का होता है, तो अच्छी तरह से गली हुई गोबर की खाद 25 से 35 किलोग्राम,
यूरिया 1000 ग्राम, सिंगल
सुपर फास्फेट 1000 ग्राम और
म्यूरेट ऑफ पोटाश 800 ग्राम प्रति
वृक्ष डालना चाहिए l अम्लीय मिट्टी की दशा में बुझा सुखा चुना पावडर एवं दानेदार
पिफ्रोनिल कीटनाशक दवा आवश्यकतानुसार पौधों की उम्र एवं वृद्धि विकास के आधार पर प्रयोग
कर प्रति एकड़ अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है l
पौध
संरक्षण-
आलूबुखारा की
खेती में लगने वाले मुख्य कीट इस प्रकार है, जैसे-
पत्ते
मोड़ने वाली माहू-लीफ कर्ल एफिस- इस कीट के शिशु
तथा वयस्क पत्तियों का रंग चूसते है, जिससे पंत्तियाँ विकृत होकर मुड़ और सूख जाती
हैं l
रोकथाम- इसकी रोकथाम के
लिए इमिडाक्लोरोपिड 200 एस एल दवा 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव
करना चाहिए l इसके अलावा थायोमिथाक्साम 25 डब्लू जी की 0.4 मिलीलीटर प्रति लीटर
पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए l पहला छिडकाव के बाद पंद्रह दिन के अंतराल पर दूसरा
छिड़काव अवस्य करना चाहिए l
शल्क-स्केल- इस कीट की मादा
पौधे के तने तथा शाखाओं पर छोटी गोलाकार घुण्डियों के रूप में दिखाई पड़ती है,
छोटे शिशु पत्तियों पर स्थिर रह कर रस चूसते है l
रोकथाम-कापर
आक्सीक्लोराइड 600 ग्राम को 200 लिटर पानी में
मिलाकर छिड़काव करेंl
तना बेधक
कीट (स्टेम बोरर)- इसके कैटरपिलर
शाखाओं व तने में छेद करते हैं और उनके अन्दर सुरंग बना कर तन्तुओं को खाते रहते
हैं और क्षति पहुँचाते हैं, कैटरपिलर शाखाओं तथा तने में बनाई सुरंगों के छेदो से
गुलाबी रंग के बुरादे जैसे पदार्थ की गोलियाँ बना-बना कर बाहर फेंकते रहते हैं l
जिससे आलूबुखारा की शाखाएं सुख जाती है, कभी कभी तो पूरे पौधे भी सूख जाते है l
रोकथाम- इसकी रोकथाम के
लिए पूर्व फसल के डंठलो को जला दें, क्विनाल्फास या क्लोरोपायरीफास का छिड़काव करें
और छेदों में दवा डाल कर गीली मिट्टी से बंद कर दे l
रोग का
निदान-
आलूबुखारा की खेती में
लगने वाले मुख्य रोग इस प्रकार हैए जैसे-
जड़-सड़न
रोग (रूट रॉट)- यह रोग पौधों की जड़ों में सफेद रंग की फफूँदी द्वारा होते
है, जिससे पौधे धीरे-धीरे कमजोर होते जाते हैं l
रोकथाम- इस वीमारी की
रोकथाम के लिए सर्दियों में रोगग्रस्त पौधों की जड़ों से मिट्टी हटाकर धूप लगने के
लिए खोल देंना चाहिए l रोगग्रस्त पौधों की जड़ों से जख्म को साफ करके उसमें
फफूंदीनाशक पेस्ट लगाएं l जड़ों में पानी को नहीं रुकने देंना चाहिए इसके लिए टपक
सिंचाई का प्रयोग करना चाहिए, अगर थाला विधि से सिंचाई करते हैं तो पानी की निकासी
के लिए नालियां बनाएं, बगीचे में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, खरपतवार को पौधे
की जड़ों में उगने नहीं उगने देंना चाहिए l
जीवाणु
धब्बे- इस बीमारी के लगने पर पत्तियों में छोटे-छोटे धब्बे पड़
जाते है l
रोकथाम- इस बिमारी की
रोकथाम के लिए पत्तों के गिरने या कलियों के सूखने के समय कॉपर आक्सी क्लोराइड का 3-4
ग्राम प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिएl
सिल्वर
लीफ कैंकर- पंखुड़ी पतन के तुरंत बाद संक्रमण के प्रारंभिक अवस्था में
ग्रसित पेड़ों की पत्तियॉ चांदी की तरह धातुई चमक लिए हुए होती हैं, शाखाओं पर यह
फफोलों के रूप में परिलक्षित होती है, पेड़ की छाल का बाह्य भाग कागज की तरह उतर
जाता हैl
रोकथाम- इस वीमारी के
निदान हेतु स्ट्रेप्टोमाइसीन सल्फेट के 2 से 3 छिड़काव 15 दिनों पर करें, बाविस्टीन या कॉपर आक्सी क्लोराइड 3 ग्राम प्रति
लिटर पानी का छिड़काव करेंl
फल
तुडाई और पैदावर
फल
तुडाई- आलूबुखारा फलों के अच्छे स्वाद के लिए फलों को पेड़ पर
पकने के बाद ही तोड़ना अच्छा होता है l तोड़ने के बाद इसके स्वाद की वृद्धि नहीं
होती l फिर भी दूर बाजार में भेजने के लिए इसे पेड़ पर पूरा पकने के कुछ दिन पहले
ही तोड़ा जाता है, आलूबुखारा को अधिक दिन तक अच्छी दशा में रखा जा सकता है l
पैदावर- आलू एवं
समशीतोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र मेनपाट में दो वर्ष के अनुसंधान प्रयोग एवं पौधे की
उम्र पाँच वर्ष लगभग के आधार पर एक पेड़ से 15-20 किलोग्राम फल प्राप्त किया जा
सकता है l
नोट:- उपर्युक्त लेख
आलू एवं समशीतोष्ण फल अनुसंधान केन्द्र मेनपाट में अनुसंधान प्रयोग के आधार पर
लिखा जा रहा है कर्षण क्रिया, फल उपज स्थान एवं भूमि एवं जलवायु के आधार पर अलग –अलग
हो सकता है l
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